उज्जैन। जब हम ऐसा मानते लगते हैं कि ऐसा होगा, वैसा होगा और हमारे हिसाब से नहीं होता है तो हम दुखी होते हैं। लेकिन वो जो करता है वह अच्छा करता है। जीवन है तो दुख और परेशानियां तो आएंगी ही। भगवान ने भी दुख और परेशानियां झेली। सुख-दुख तो जीवन में चलेगा ही। हमें सिर्फ भगवान की शरण में जाने की देर है। जैसे ही हम भगवान की शरण में जाते हैं, कृपा अपने आप होने लगती है।
यह बात प्रसिद्ध कथावाचक जया किशोरी ने देवास रोड, हामूखेड़ी स्थित कथास्थल पर श्रीमद्भागवत कथा करते हुए कही। उन्होंने कहा कि भगवान तो हमारी जिंदगी जन्म के साथ ही तय कर दी है। अब यह हमारे ऊपर है कि हम उसे हंसकर जीये या रोकर। महाभारत का जिक्र करते हुए जय किशोरी ने कहा कि एक बार भगवान कृष्ण और कर्ण के बीच बातचीत में कर्ण कहते हैं कि मेरी जिंदगी में इतना गलत हुआ है तो दुर्योधन का साथ कैसे गलत हुआ। तब भगवान कहते हैं कि मेरे जन्म लेने के पहले ही मेरी मृत्यु खड़ी थी। माता-पिता से अलग हुआ। गोकुल में मेरा मन रमा ही था कि मथुरा ले आए। फिर गुरुकुल भेजा। फिर राज्य संभाला। महाभारत किया। जरासंघ को मारा। हर वक्त लोग मेरे पीछे लगे रहे। मेरे साथ इतना गलत हुआ तो क्या मुझे गलत करने की आजादी मिल गई। हमारे साथ यदि गलत हुआ है तो हमारी जिम्मेदारी बढ़ जाती है कि अब हम दूसरों के साथ गलत न होने दें। सिर्फ हालात बुरे होने से गलत रास्ते पर चलने वाले का साथ भगवान नहीं देता। भगवान आनंद है। जो भगवान के साथ है वह असली आनंद के साथ है। शुकदेवजी के अवतार की कथा सुनाते हुए जया किशोरी ने कहा कि एक बार ब्रह्माजी ने एक सभा का आयोजन किया। उसमें सभी देवी-देवता, यक्ष, गंवर्ध, किन्नर आए। तब प्रश्न उठा कि तीन लोक, १४ भुवन में सबसे कीमती वस्तु क्या है। सभी अपने-अपने स्तर पर उत्तर दे रहे थे। कोई हीरा को कीमती बता रहा था, तो कोई स्वर्ण तो कोई चांदी को। वहां ऋषिमुनि भी बैठे थे। उन्होंने पूछा कि यह तो कई लोगों के पास है। फिर यह कीमती कैसे। कीमती तो वह जो हर किसी के पास नहीं होती। यानी जो दुर्लभ है। तब यह बात सामने आई कि सबसे कीमती कुछ है तो वह है प्रेम। निस्वार्थ प्रेम। भगवान जो हमसे करते हैं वह निस्वार्थ प्रेम है। हम तो भगवान से भी स्वार्थ का प्रेम करते हैं। हम तो इतने स्वार्थी हैं कि भगवान हमारा एक काम न करे तो हम भगवान बदल देते हैं। हमारे पास ऐसा कुछ नहीं है जो भगवान को दे सकते हैं। फिर भी वो हमारी सहायता करते हैं। हमसे प्रेम करते हैं। गजेन्द्र ने मध्यरात्रि में भगवान विष्णु को पुकारा तो वे मध्यरात्रि में लक्ष्मी को छोड़ भाग गए।
प्रेम की पराकाष्ठा महादेव और पार्वती माता के पास हैं। महादेव ज्यादा समय कैलाश पर्वत पर रहते हैं, जहां सुख-सुविधा नाम की कोई चीज नहीं है। महादेवजी के महल की कथा के बारे में उन्होंने कहा कि एक बार पार्वतीजी ने कहा कि मुझे भी महल चाहिए। मुझे पर्वत पर नहीं रहना। भोले बाबा समझाते हैं कि महल की क्या जरूरत है। तब पार्वती जिद पर अड़ जाती हैं कि उन्हें तो महल चाहिए ही, वह भी उनके हिसाब से। महल ऐसा होना चाहिए कि देखने वाला देखता रह जाए। सोने का महल बनाया। पार्वती ने लक्ष्मी को गृह प्रवेश में बुलाया। रावण के पिताजी विश्रर्वा गृहप्रवेश करवाने के लिए आए। गृह प्रवेश की पूजा हुई। दक्षिणा के लिए भोलेबाबा ने विश्रर्वा से पूछा क्या चाहिए। तब विश्रर्वा ने कहा कि सुंदर महल बना है, इसे दान में दे दो। महादेवजी ने तथास्तु कह दिया। वह सोने का महल ही सोने की लंका बनी, जिसे रावण के पिता ने भगवान भोलेनाथ से दान में लिया था। जिसकी जो तकदीर है, उसे बस उतना ही मिलता है। नारदजी ने सोचा भोले और पार्वती के बीच झगड़ा करवा दूं। नारदजी प्रतिदिन कैलाश पर्वत पर जाते हैं और दर्शन कर वापस आ जाते हैं। एक दिन नारद को पार्वतीजी मिली और भोले नहीं मिले। तब पार्वतीजी ने पूछा क्या बात है। तब नारदजी ने कहा कि व्यक्तिगत बात है। आपको नहीं बता सकता। पार्वतीजी बोली- बाबा और मेरे बीच कोई भी बात छुपी नहीं रहती। नारद बोले- पुरुष कोई न कोई बात स्त्री से छुपाता ही है। पार्वती ने कहा ऐसी कोई बात नहीं है। तब नारद ने पूछा कि क्या आपने अमर कथा सुनी है। पार्वती ने कहा नहीं सुनी। नारद ने कहा कि जिससे बाबा सबसे ज्यादा प्रेम करते हैं उसे अमर कथा सुनाते हैं। फिर नारदजी चले गए। जब बाबा वापस आते हैं तो उनका कोई स्वागत नहीं, कोई बातचीत नहीं। कुछ नहीं। तब बाबा ने पूछा सब ठीक है न। तब माता ने पूछा- मुझसे प्रेम करते हैं या नहीं? बाब ने कहा ये कोई पूछने की बात है। तब माता कहती है तो अब तक मुझे अमर कथा क्यों नहीं सुनाई। बाबा कहते हैं अब सुना देते हैं। लेकिन यह सबके सामने नहीं सुनाई जाती, क्योंकि जो इसे सुनता है वह अमर हो जाता है। तब भगवान कथा सुनाना शुरू करते हैं, पर पार्वती को कहते हैं कि वह थोड़ी-थोड़ी देर में हं स्वामी करते रहना। वहीं पेड़ में एक सुवे (तोते) का अंडा उसी समय फूटता है उसमें से शुक बालक निकलता है। भोले बाबा ने कथा कहते-कहते नेत्र बंद कर लिए। माता थोड़ी देर बाद सो गई। लेकिन तोता हं स्वामी करता रहता है। तब तोते पर क्रोध करके बाबा शुक पर त्रिशूल लेकर दौड़े। तब शुक वेदव्यास की पत्नी के मुख से गर्भ में चले जाते हैं। बाबा वेदव्यास के आश्रम में आते हैं, तब वेदव्यास कहते हैं पहली बार दर्शन दिए, वह भी इस रूप में। तब भोलेबाबा कहते हैं कि कोई चोर यहां आया है। तब वेदव्यास कहते हैं आपके पास से क्या कोई चोरी कर सकता है। तब बाबा ने अमरकथा चोरी से सुनने की बात कही और उसे मारने की बात कही। तब वेदव्यास ने कहा कि उसे आप मार नहीं सकते। वह अमर हो गया है। तब बाबा कहते हैं कि मैं उसे बंदी बनाकर रखूंगा। तब वेदव्यास ने कहा कि उसके अहोभाग्य जो आपके साथ बंदी बनकर जा रहा है। तब बाबा कहते हैं कि बच्चे के जन्म तक मैं एक वर्ष यहीं समाधि लेता हूं। तब बच्चे ने गर्भ में १६ वर्ष की समाधि ली। बाबा समाधि से उठने के बाद वेदव्यास से पूछते हैं कि बच्चा कहां है। तब वेदव्यास कहते हैं कि उसका तो आकार भी नहीं बढ़ रहा। तब शायद आपके डर से बाहर नहीं आ रहा। तब भोलेबाबा उसे क्षमा करते हैं। फिर बाबा मोहमाया को एक क्षण के सौवें हिस्से के लिए रोकते हैं तब शुकदेव गर्भ से बाहर आते हैं।
कथा आयोजन आरके डेवलपर्स के राकेश अग्रवाल द्वारा मां की स्मृति में कथा आयोजित की जा रही है। यहां बने पांडाल में 40 हजार लोगों के बैठने की व्यवस्था की गई है। कथा 25 नवंबर तक चलेगी। शहर में पहली बार जया किशोरी की भागवत कथा हो रही है। सोमवार को शंकर-पार्वती के विवाह का प्रसंग सुनाया जाएगा। कथा प्रारंभ होने के पूर्व हामूखेड़ी से कलश यात्रा निकाली गई। कथा के दौरान उच्च शिक्षा मंत्री डॉ. मोहन यादव भी उपस्थित थे।
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